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मूं खे न विसारी जा लिफ़ाफा / एम. कमल
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”मूं खे न विसारी“ जा लिफ़ाफा।
टुकरा थी संदसि हथाँ उॾाणा॥
अॼु जो आहियां सुञो ख़रीद्दारु।
सभु ख़र्चे छॾिया अथमि सुभाणा॥
जंहिं पासे खिंवणि घणी खॼे थी।
सुञ कया थे उन तरफ़ वथाणा॥
काई त किथे हवा हली आ।
उफ़्वाहनि जा छो कख उॾाणा॥
केरु आहे जा पीड़े थो असां खे।
तो खे भी न सुधि, मां भी न ॼाणां॥
जीवति त चॿे उथी कणा सभु।
र्दनि जा मगर खुटा न दाणा॥