भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उन दोउन कौ नैन मटक्का / अशोक अंजुम
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:54, 6 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक अंजुम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
उन दोउन कौ नैन मटक्का
देखि कैं सिगरे हक्का बक्का
मन की आस डूबती जाबै
उड़ि गए बादर, सूखै मक्का
रोज बढ़ रई यों आबादी
जाम हर तरफ है रयौ चक्का
सब सिर फोडैं दीवाली पै
बापू लाये नाय पटक्का
आरक्षन कौ टोनिक पीकैं
सूखौ दे तगड़े कूँ धक्का
घर में हैं रोटीन के लाले
बैद कहै कै खाऔ मुनक्का
जी घबराबै सोचि-सोचि कैं
रस्सा चौं लाये हैं कक्का