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मन की धरा पै तप्त-धारा मत बहाऔ प्राणधन / मंगलेश

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मन की धरा पै तप्त-धारा मत बहाऔ प्राणधन।
कोमल-कपोल'न कों न अँसुअ'न सों गराऔ प्राणधन॥

कारी बदरिय'न में घिरे मुखचन्द्र के मनभावते।
अलक'न की खिरकि'न सों तनिक दरसन कराऔ प्राणधन॥

रासेश! रस बरसाउ बस, हिरदे के टुकड़ा मत करौ।
दरसन कराऔ बीजुरी कों मत गिराऔ प्राणधन॥

अब तौ किसन, कानन में हू कान'न में कर्कशता घुसै।
अधर'न पै धर कें फिर मधुर मुरली बजाऔ प्राणधन॥

महारास में जा सों बढ्यौ अनुराग सात्विक तत्व कौ।
फिर सों हमें वौ मदभरी मदिरा पिवाऔ प्राणधन॥