भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन! अब तो सुमिर ले राधेश्याम / बिन्दु जी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:36, 13 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिन्दु जी |अनुवादक= |संग्रह=मोहन म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मन! अब तो सुमिर ले राधेश्याम।
राधेश्याम मन! सीताराम।
अबतक तो जग में भरमाया।
उचित मार्ग पर कभी न आया॥
अब भज ले हरिनाम॥ मन अब तो...
अब तक तो भटकता था जग के व्यर्थ जालों में,
मगर अब सोचकर कुछ चल जरा सच्चे खयालों में।
जो तेरे पास हरि सुमिरन का सच्चा पास होवेगा,
तो कर विश्वास तेरा स्वर्ग ही में वास होवेगा।
कृष्ण लिखा हो जब इस तन में,
गम के फंदे कटे सब क्षण में।
कृष्ण नाम सुखधाम॥ मन अब तो...
जिसे तू मेरी कहता है वो अंतिम दिन नहीं होगा,
तू जिस माया में भटका है वो कुछ तेरा नहीं होगा।
जो धन-दौलत कमाया है यहाँ ही सब धरा होगा।
भजन हरि का किया है जो वही साथी तेरा होगा।
पाप ‘बिन्दु’ का घड़ा फोड़ दे।
व्यर्थ वासना डोर तोड़ दे।
कर ले कुछ विश्राम॥ मन अब तो...