Last modified on 29 अप्रैल 2008, at 20:33

बाबा नागार्जुन के प्रति / दिविक रमेश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:33, 29 अप्रैल 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिविक रमेश |संग्रह=खुली आँखों में आकाश / दिविक रमेश }} ब...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बाबा तुमने बादल को घिरते देखा है।

बाबा तुमने धरती का हर रंग पढ़ा है।

बाबा तुमने हर ग़लती पर वार किया है,

फिर भी बाबा कैसे सबका प्यार लिया है।


भटक-भटक कर उनको चूमा जो खोए थे

तुमने बाबा भीतर से पर-दुख पहचाना

लेकिन बाबा सच-सच कहना मत टरकाना

कालिदास या अज रोया या तुम रोए थे।


जग जिसको सधना कहता है तुमने छोड़ा

साध रहे हो छन्द और जीवन की लय को

फोड़-फोड़ कर भाषा-गुट्ठल छोड़ा घोड़ा

महायज्ञ का, ढूंढ रहे जन-जन की जय को।


कितनी कड़ियल कोमल है भीतर की आभा

खिला रहे हो जिससे जग में आशा बाबा।