भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रभो दो वही पीड़ामय प्यार / बिन्दु जी
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:55, 18 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बिन्दु जी |अनुवादक= |संग्रह=मोहन म...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
प्रभो दो वही पीड़ामय प्यार।
जिसकी विरह वेदना में भी हो सुख का संचार॥
मन का मनमोहन से ऐसा बंध जाए कुछ तार।
जिससे यह मन भी हो जाए मोहन का अवतार॥
सुधि को सुधि न रहे ऐसा हो विस्मृति का व्यापर।
जीवन की गति में हो जैव जीवन गति का भार॥
उर उमगा दो विरह सिन्धु को इतना अगम अपार।
जिसके एक ‘बिन्दु’ में पड़कर पहुँच न पाऊँ पार॥