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प्रभो दो वही पीड़ामय प्यार / बिन्दु जी

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प्रभो दो वही पीड़ामय प्यार।
जिसकी विरह वेदना में भी हो सुख का संचार॥
मन का मनमोहन से ऐसा बंध जाए कुछ तार।
जिससे यह मन भी हो जाए मोहन का अवतार॥
सुधि को सुधि न रहे ऐसा हो विस्मृति का व्यापर।
जीवन की गति में हो जैव जीवन गति का भार॥
उर उमगा दो विरह सिन्धु को इतना अगम अपार।
जिसके एक ‘बिन्दु’ में पड़कर पहुँच न पाऊँ पार॥