घर एक दुःस्वप्न / सुजाता
घर एक दुःस्वप्न
दूर तक फ़ैली है रेत
मैं खोदती हूँ देर तक
नहीं बना पाती एक गड्ढा भी अपने लिए
खोदने के लिए ज़रा-सी जगह डालती हूँ हाथ
और भर जाती है
उसमें भी रेत!
मैं ज़िंदा हूँ मरीचिकाओं के लिए?
या खाद के लिए?
इश्क़ के छिलके भी तो नहीं हैं बायोडिग्रेडेबल!
सिर्फ प्यार के लिए जीना रेत हो जाना है एक दिन
कुछ नहीं बचता उस दिन तक
बचा रहता है घर रेत के ऊपर भी
प्रेम!
तुम्हे आना था पांवों के नीचे साझा मंज़िल की ओर जाती राहों में
हो जाना था कभी सर पर सवार सांस लेने के लिए रुकते ही
होंठो पर पिघलना था पहले कौर से पहले
विचारों के उलझ जाने के बाद आँखों में उगना था सूरजमुखी जैसा ...
रात से पहले तुम्हे आना था भटकती शामों की तरह
आना था कई रतजगों के बाद पाए साझा सपनों की तरह
तुम्हे नहीं आना था बवण्डर जैसे
नहीं होना था शाश्वत रेत!
कपड़े फटकारती हूँ तो मिलती है वह
जींस के मुड़े हुए पायचे खोलने से झरती है
किताबों के पन्नों के बीच दिखती है महीन पंक्ति-सी
मैं आवाज़ लगाती हूँ और भर जाती है गले में रेत
रेत के नीचे दबे हैं सारे नक्शे उन पुलों के जिन्हें साथ पार करने से पहले हमीं को बनाना था
चलती हूँ तो धंस जाती हूँ
हथेलियों से दिन भर हटाती हूँ रेत बनाती हूँ जगह
बनाती जाती हूँ जगह और भरती जाती है रेत!