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चिता जहाँ मेरी सजती हो / कृष्ण मुरारी पहारिया

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प्राणों को लय पर तैराकर, अच्छी तरह विदा कर देना

अगर सगे सम्बन्धी मेरे, चिता सजा कर रोयें धोयें
उनसे बस इतना कह देना, कांटे अंतिम बार न बोयें
जब तक साँसें रही देह में, तब तक की सेवा क्या कम है
चलते समय आँख गीली क्यों और पूछना कैसा गम है

वे स्वतंत्र हैं उनकी नैया, उनके हाथ उन्हीं का खेना

तुम पर मेरा, मेरे मित्रों और नहीं इतना तो ऋण है
सारी रचना तुम्हें समर्पी, जैसे हरी दूब का तृण है
उस तृण की शीतलता पीकर, कभी ह्रदय सहलाया होगा
भटका हुआ पिपासित यह मन, क्षण भर को बहलाया होगा
 
इतना करना मेरी खातिर, खड़ी रहे छंदों की सेना