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मन की धरती पर / कृष्ण मुरारी पहारिया

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मैंने तो मन की धरती पर
गीतों के सपने बोये हैं
ऊपर से उन्मन लगता हूँ
भीतर प्राण नहीं सोये हैं

प्राणों में सर्जन चलता है
और सदा चलता रहता है
जो भी देखा-सुना जगत में
बिम्बों में ढलता रहता है
जो अपने भीतर-ही-भीतर
कुंठा की गांठे ढोता है
उसको कवी की कारगुजारी
पर विश्वास नहीं होता है

सारा वातावरण गुंजाने
के संकल्प नहीं खोये हैं
सर्जन सदा अकेले होता
यों काया पर दया सभी की
देखो कितने और चले थे
उनकी क्षमता चुकी की
सर्जन में साहस लगता है
यह कायर का खेल नहीं है
अपना लोहू इसे दिया है

किसी तरह से अपने तन पर
दुनिया के बोझे ढोये हैं