भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
थोड़ी-सी राहत थी / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:20, 29 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामस्वरूप 'सिन्दूर' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आज ज़रा फुर्सत थी, उस टोले चला गया
उसके घर जाना क्या, रोज़-रोज़ होता है!
सहज दिन बिताना, क्या रोज़-रोज़ होता है!
मोढ़े पर बैठ कंठ-तक गोरस पी आया,
गन्ने से मीठे पल, कलयुग में जी आया,
थोड़ी-सी राहत थी, उस टोले चला गया
रीझना-रिझाना, क्या रोज़-रोज़ होता है!
रूठना-मनाना, क्या रोज़-रोज़ होता है!
झिलमिल बहुरूप नैन-कोरों में ठहर गये,
रूढ़ हुए शब्दों को अर्थ मिले नये-नये,
कैसी-कुछ चाहत थी, उस टोले चला गया
मन को गा पाना क्या रोज़-रोज़ होता है!
छेड़ना तराना, क्या रोज़-रोज़ होता है!
मौज से फटेंगी अब कितनी ही संधायें,
लोकगीत गायेंगी, मूक-बधिर यात्राएँ,
वक्त की इनायत थी, उस टोले चला गया!
ख़ुद पर इतराना, क्या रोज़-रोज़ होता है!
साथ दे ज़माना, क्या रोज़-रोज़ होता है!