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चिट्ठी / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो

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दर्द आरो बेचैनी सें भरलोॅ तोर चिट्ठीं हो भाय
लै गेलोॅ कहाँ सें कहाँ बहाय।
जिनगी के टूटन, उदासी, थकान,
टौवैलोॅ छोॅ बिना छत के मकाने-मकान
खोजने छोॅ हँस्सी पैने छोॅ लोर
मिललोॅ छौं रात जबेॅ खोजने छोॅ भोर।
एक बात समझोॅ में नै ऐलै मीत!

कंठोॅ से भरलोॅ छौं तोरा जे गीत
केकरा सें मांगने छोॅ ओकरोॅ मिठास!
जिनगी के सब जहर खोंसी कहाँ राखने छोॅ!
कहाँ सें पैने छोॅ पितमरूवोॅ आस!

स्वर के मन्दाकिनी सस्वर बहैने छोॅ,
कहाँ ई पैने छोॅ, कहाँ ई पैने छोॅ!
जानै छीं थाहने छोॅ सागर के कोख
जंगल-पहाड़ोॅ के देखने छोॅ रोख
फूलोॅ के मुस्की, झरना के फेन
बाँटै छोॅ केना केॅ ई निर्मल चैन
ऊसर के जलनोॅ सें झौंसलोॅ छौं देह
आत्मा में मंड़राय छौं केना ई मेह?

”ओसोॅ से लटसट हरियाली के गाँव
बारिक सुगन्धोॅ के सुखदायी बॉेव
नील-नील स्वच्छ नील सरङोॅ के घेरा
गीत मगन प्रीत मगन पंछी के डेरा
कमलोॅ सें कसकलोॅ पोखर तालाब
सुखकर अति सुन्दर ई मन के भटकाव“
-कोन मंत्र सिद्ध करी रचने छोॅ रूप?
ज्ञान-दग्ध मानव केॅ सुस्ताय लेॅ
छाँह-युक्त, दाह-मुक्त, शीतल अपरूप!