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मौन टूटा छन्द में / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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जो असम्भव था, उसे सम्भव किया मैंने!
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन जिया मैंने!

मैं प्रणय के आदि-क्षण से देह के बाहर रहा,
मौन टूटा छन्द में, जो कुछ कहा गा-कर कहा,
शब्द में, नि:शब्द को भी गा दिया मैंने!
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन जिया मैंने!

प्राण हिम-शीतल किया, रवि के प्रखर उत्ताप ने
काल के सीमान्त लाँघे, शून्य के आलाप ने
अमृत से दुर्लभ, अतल दृग-जल पिया मैंने!
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन जिया मैंने!

मैं गिरा, गिरि-श्रंग से तो एक निर्झर हो गया,
घाटियों में इस तरह उतरा, कि सागर हो गया,
संक्रमण-सुख को सनातन कर लिया मैंने!
तब कहीं ‘सिन्दूर’ का जीवन जिया मैंने!