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पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं / द्विजेन्द्र 'द्विज'
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पर्वतों जैसी व्यथाएँ हैं
‘पत्थरों’ से प्रार्थनाएँ हैं
मूक जब संवेदनाएँ हैं
सामने संभावनाएँ हैं
रास्तों पर ठीक शब्दों के
दनदनाती वर्जनाएँ हैं
साज़िशें हैं ‘सूर्य’ हरने की
ये जो ‘तम’ से प्रार्थनाएँ हैं
हो रहा है सूर्य का स्वागत
आँधियों की सूचनाएँ हैं
घूमते हैं घाटियों में हम
और काँधों पर ‘गुफ़ाएँ’ हैं
आदमी के रक्त पर पलतीं
आज भी आदिम प्रथाएँ हैं
फूल हैं हाथों में लोगों के
पर दिलों में बद्दुआएँ हैं
स्वार्थों के रास्ते चल कर
डगमगाती आस्थाएँ हैं
ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्योंकि ये ग़ज़लें व्यथाएँ हैं
छोड़िए भी…फिर कभी सुनना
ये बहुत लम्बी कथाएँ हैं