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भुजबंधों में सृष्टि समायी / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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सुधि बिसरी त्रिकाल-त्रिभुवन कि!
वैदेही-वेला ने लिख दी, कल्प-कथा कन्दरा-मिलन की!

मेरा पुरुष-समर्पण ऐसा
ऋतम्भरा वसुधा सकुचायी,
मुक्तकेश-मलयजी श्वास के
भुजबंधों में सृष्टि समायी,
माटी से कंचन, कंचन से काया-सकल हुयी चन्दन की!

क्षितिज तिरोहित हुआ दृष्टि से
ओझल हुई विभाजन-रेखा,
अलख अगोचर-निराकार को
मैंने इं आँखों से देखा,
अमृत-कुण्ड तक मुझे ले गयी, गुह्य-गुहा आनन्द भवन की!

सिकता में खोये निर्झर ने
बूँद –बूँद संगम-क्षण पाया,
बांहों में तटबन्ध समेटे
सागर ने उदगम-क्षण गाया,
एक चरण ने, पूरी कर दी जन्मान्तर-यात्रा जीवन की!