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नदी के तीर पर ठहरे / विनोद श्रीवास्तव
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नदी के तीर पर
ठहरे
नदी के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
लहर की बानगी
हमको नहीं मिलती
हवा को हो गया क्या
नहीं पत्ते खड़कते हैं
घरों में गूजते खंडहर
बहुत सीने धड़कते हैं
धुएं के शीर्ष पर
ठहरे
धुएं के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
नज़र की बानगी
हमको नहीं मिलती
नकाबें पहनते हैं दिन
कि लगता रात पसरी है
जिसे सब स्वर्ग कहते हैं
न जाने कौन नगरी है
गली के मोड़ पर
ठहरे
गली के बीच से
गुजरे
कहीं भी तो
शहर की बानगी
हमको नहीं मिलती
कहाँ मन्दिर, कहाँ गिरजा
कहाँ चैतन्य की आभा
कहाँ नानक, कहाँ कबिरा
कहाँ खोया हुआ काबा
अवध की शाम को
ठहरे
बनारस की सुबह
गुजरे
कहीं भी तो
सफ़र की बानगी
हमको नहीं मिलती