भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारी देह का तपना / विनोद श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:58, 4 जनवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनोद श्रीवास्तव |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारी देह का तपना
तुम्हारी धूप क्या जाने

बहुत गहरे नहीं सम्बन्ध होते
रंक राजा के
न रौंदें गाँव की मिट्टी
किसी के बूट आ-जा के

हमारे गाँव का सपना
तुम्हारा भूप क्या जाने

नशें में है बहुत ज्यादा
अमीरी आपकी कमसिन
गरीबी मौन है फिर भी
उजाड़ी जा रही दिन-दिन

तुम्हारी प्यास का बढ़ना
तुम्हारा कूप क्या जाने

हमारे दर्द गूगे हैं
तुम्हारे कान बहरे हैं
तुम्हारा हास्य सतही है
हम्रारे घाव गहरे हैं

हमारी भूख का उठना
तुम्हारा सूप क्या जाने