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शाम-सुबह महकी हुई / विनोद श्रीवास्तव

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शाम-सुबह महकी हुई
देह बहुत बहकी हुई
ऐसा रूप कि
बंजर-सा मन
चन्दन-चन्दन हो गया

रोम-रोम सपना संवरा
पोर-पोर जीवन निखरा
अधरों की तृष्णा धोने
बूँद-बूँद जलधर बिखरा

परिमल पल होने लगे
प्राण कहीं खोने लगे
ऐसा रूप कि
पतझर-सा मन
सावन-सावन हो गया

दूर हुई तनहाइयाँ
गमक उठी अमराइयां
घाटी में झरने उतरे
गले मिली परछाइयाँ

फूलों-सा खिलता हुआ
लहरों-सा हिलता हुआ
ऐसा रूप कि
खण्डहर सा मन
मधुवन–मधुवन हो गया

डूबें भी, उतरायें भी
खिलें और कुम्हलायें भी
घुलें-मिलें तो कभी-कभी
मिलने में शरमायें भी

नील वरन गहराइयाँ
साँसों में शहनाईयां
ऐसा रूप कि
सरवर-सा मन
दर्पण-दर्पण हो गया