चतुर्थ खंड / केनोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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उस उमा रुपी ब्रह्म शक्ति ने इन्द्र को उत्तर दिया,
परब्रह्म ने ही स्वयं यक्ष का रूप था धारण किया।
सुर असुर युद्ध में विजय का अभिमान देवों ने किया,
इस मान मर्दन को ही ब्रह्म ने रूप यक्ष का था लिया॥ [ १ ]
- परब्रह्म का स्पर्श दर्शन इन्द्र अग्नि वायु ने,
- कर प्रथम जाना ब्रह्म को, लगे ब्रह्म को पहचानने।
- ये श्रेष्ठ अतिशय देवता, विश्वानि विश्व प्रणम्य है,
- इनके ह्रदय में ब्रह्म तत्व का मर्म अनुभव गम्य है॥ [ २ ]
- परब्रह्म का स्पर्श दर्शन इन्द्र अग्नि वायु ने,
साक्षात परब्रह्म नित्य अज, यह सच्चिदानंद प्रभो,
अनुपम अगोचर भक्त वत्सल, भव विमोचन है विभो।
इस तथ्य को अति प्रथम इन्द्र ने ज्ञात मन द्वारा किया,
इन अन्य देवों की अपेक्षा श्रेष्ठता का पद लिया॥ [ ३ ]
- जब हृदय में उत्कट पिपासा ब्रह्म , के साक्षात को,
- जागृत हो तब सर्वज्ञ देता, क्षणिक दर्शन भक्त को।
- उपदेश दिव्य है आधिदैविक मर्म जाने भक्त ही,
- जब इष्ट के साक्षात बिन , मन व्यथित व्याकुल हर कहीं॥ [ ४ ]
- जब हृदय में उत्कट पिपासा ब्रह्म , के साक्षात को,
ये जो मन हमारा ब्रह्म के अति निकट होता प्रतीत हो,
साकार हो कि निराकार हो पर प्रभो में प्रतीति हो।
फिर इष्ट में अतिशय निमग्न हो, प्रेम में व्याकुल रहे,
साक्षात करने की अभीप्सा में ही मन आकुल रहे॥ [ ५ ]
- सब प्राणियों को विश्व में , प्रिय परम प्रभु परमेश है,
- उसका निरंतन नित्य चिंतन, भक्त का उद्देश्य है।
- जो भक्त ईशमय हो सके, आनंदमय होता वही,
- आत्मीय बन कर विश्व का, सम्मान पाता हर कहीं॥ [ ६ ]
- सब प्राणियों को विश्व में , प्रिय परम प्रभु परमेश है,
गुरुदेव कृपया मर्म ब्रह्मा का यथोचित कीजिये,
हमें जो भी सम्भव हो बताना, व्यक्त सब कर दीजिये।
वत्स तुमको ब्रह्म विद्या का मर्म व्यक्त किया सभी,
श्रोतस्य श्रोतम ब्रह्म का अथ मर्म हम कहते सभी॥ [ ७ ]
- जो लक्ष्य ब्रह्म को मानकर, निष्काम तप, दम, भाव से,
- करें वेद धर्म का आचरण, यदि अमिय सिक्त स्वभाव से।
- सर्वस्य परब्रह्म ब्रह्मविद्या, प्राप्त कर सकते वही,
- वही सर्वथैव असाध्य ब्रह्म को, साध्य कर सकते मही॥ [ ८ ]
- जो लक्ष्य ब्रह्म को मानकर, निष्काम तप, दम, भाव से,
उपनिषद रूपा ब्रह्मविद्या, आत्म तत्त्व जो जानते,
करें कर्म चक्र का निर्दलन, गंतव्य को पहचानते।
आवागमन के चक्र में, पुनरपि कभी बंधते नहीं,
अरिहंत, पाप व पुण्य के, दुर्विन्ध्य गिरि रचते नहीं॥ [ ९ ]