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शाम ढले फिर याद आ गया / प्रमोद तिवारी
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शाम ढले फिर
याद आ गया
संयम को हरने वाला क्षण
वह क्षण जिसमें सिर्फ
हारने का प्रण था
जीतना नहीं था
बूंद-बूंद बादल
बरसाना था
लेकिन रीतना नहीं था
कैसे प्यासे अधर भूलते
पानी पर
तिरने वाला क्षण
कागज़ की नावें तैराकर
लहरों को देखते रहे थे
नावें तैर रही थीं
जल में
लेकिन हम
डूबते रहे थे
आया एक फक़ीर सरीखा
जल ही जल
करने वाला क्षण
दूर कहीं उड़ गया हंस के
जोड़े के संग
वह मुस्काता
पास हमारे लिए छोड़कर,
चंदा सा चेहरा शरमाता
हम बीते
या बता
खाली झोली को
भरने वाला क्षण
शाम ढले फिर याद आ गया...