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दीप और मैं / श्वेता राय
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मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना।
किरण डूबती जब सँझा को
तब जगती मेरी तरुणाई
खुद हो जाती छिन्न भिन्न मैं
करता जब अँधियार लड़ाई
शर्वरी के गहरे साये में तय है एकाकी जल जाना
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना
रातों को तो फ़ैल चाँदनी
है बस प्रीत का राग सुनाती
देहरी और सूने आँगन में
मैं ही आस का दीप जलाती
ऊषा की किरणों संग जिसको पलभर में है मिट जाना
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना
आस यही विश्वास यही कि
व्यर्थ नही मेरा जीवन
तिल तिल खुद को जला जला कर
किया अमर अपना यौवन
मेरे प्राण निराश न हो तुम, तमिस्रा से है बैर पुराना
मैं दीये की वो बाती हूँ जिसको जल के है बुझ जाना