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सड़क को ठीक करता मजदूर / मनीषा जैन

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वह मजदूर यही सोचकर
  अपने पैरों के नीचे की
  सड़क को आकार दे रहा है
  कि कल कुछ तो अच्छा होगा
 
  वह भर रहा है सड़क के जख़्म

  उसकी देह पसीने से लथपथ है
  उसके माथे से श्रम का लहू चू रहा है
  उसके पैरों में बिबाईयाँ फट गई हैं
  फिर भी कल की उम्मीद में
  वह अपनी मजदूरीयत
  नहीं छोड़ रहा है
  
गूँथ रहा है माटी
काल कलवित समय को
दबा रहा है पैरो तले

  उसे उम्मीद सी है
  उसके घर का छप्पर
  इस बरस पक्का हो जाए
  उसके बच्चे को दूध नसीब हो जाए
  उसे सूखी रोटी के साथ प्याज मिल जाए

  लेकिन ठेकेदार के डंड़े की आवाज़ से
  वह सकपका गया है
  भंग हो गए है उसके सपने
  मानो कुएं की मंडेर पर छोड़कर
  अपने सपने
  फिर से भरने लगा है
  सड़क के ज़ख्म
  क्या बस यही है
  उसके जीवन का मर्म