भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

यही तो एक सवाल है / नाज़िम हिक़मत

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:19, 5 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नाज़िम हिक़मत |अनुवादक=चन्द्रबल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पृथ्वी का सारा धन उनकी प्यास नहीं बुझा पाता है,
उन्हें तो हवस है कि काफ़ी रक़म पैदा करें
तुम दूसरों को मारों और ख़ुद मर जाओ
कि काफ़ी रक़म से तिजोरियाँ उनकी भरें।

बेशक वे खुले तौर से यह नहीं मानते
वे सूखी डालों पर भड़कीली लालटेनें लटकाते
और रास्तों पर चमकीले झूठ दौड़ाते
उनकी दुमों के हर हिस्से में घण्टियाँ या चमाचम लटकन ही नज़र आते।

बाज़ारों के बीच ढोल वे पीटते हैं —
खेमे के भीतर देखो चीते-सा आदमी, जलपरी, बेसिर का आदमी।
खिंचे हुए तार पर लाल जाँघियों में नट खेल दिखलाते हैं
और सबके चेहरों पर पुताई की गहरी तहें जमी हैं।
तुम धोखा खाओगे या नहीं
यही तो एक सवाल है
धोखा खाने से बचे तो जियोगे
और खा गए तो जीना मुहाल है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : चन्द्रबली सिंह