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रोई दींदा / लक्ष्मण पुरूस्वानी

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आहे फर्कु वदो - वंहिवार में
थियो दुखियो जीअण - सन्सर में

खुशहालीअ खे वई नज़र लॻी
घरु ग़मनि कयो नर-नार में

दहशत, आ पिण-बुख ग़रीबी
दिसो बनी बशर-आजार में

किथे नफरत जी थी ॿाहि ॿरे
को पइसे लाइ फुर मार करे

नियत बुरी पिण कारी नज़र
ईमान दफन आ मज़ार में

शैतान शराफत ते हावी
रिश्तनि ऐं वणिज वापार में

दोस्ती ऐं भाइपी नज़र अचे थी कान
आ सोघो कयो हर कहिंखे ॼार में

कुर्बान थिया जे देस ते, सुरिॻ में वेठा
रोई दीन्दा लक्षमण, सूरनि जी मार में