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वक्त आ जालिम / लक्ष्मण पुरूस्वानी

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हलियुसु थे अकेलो जदंहि जिस्म सघारो
राह देखारे नथो हाणे हिक बि तारो

धुंध छाइल परे-परे तांई ऐं राहुनि मे कन्डा
उम्र जी शाम जे ईंदी कन्दो छा विरह वेचारो

बस अकेलाई थी मारे, मुल्क ॼणु वीरान आ
छा कयां खामोश आहियां किथे न आहे जीअ जियारो

जले पियो तन बदन रूह बि प्यासी आ
मिलियो खूह हर कहिं जो पाणी बि खारो

ॿेड़ी साहिल सां शल कींअ अची
देई छदे न आंधी को लोदो हचारो

मायूस मन सां पियो हलन्दो रहां
न पहिंजनि जो ई मिलियो को सहारो

करे चोट कदहिं न ही वक्त ज़ालिम
मूं हारियो त ‘लक्षमण’ वक्त खां हारियो