दिन
आ गये क्वार के,
तनिक देख तो लेते पार द्वार के।
हिलने लगे
काँस के उजले-उजले मुर्दल,
नदियाँ श्वेत वस्त्र पहने हैं
हरे-हरे ब्लाउज-
सिवार के।
रस-घट बाँधे लम्बी ईखें
गाँठ-गाँठ में, पोर-पोर में,
नैहर से लौटी युवती सी
वासमती की गन्ध महकती
ठौर-ठौर में,
फूल खोंस कर मूँग
झूलती है उमंग में
दाने नये पहन इतराती ज्वार,
कहें क्या रंग ढंग जो-
सुख सिंगार के।