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महानगर का कमरा / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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गाँव से भगा लेकिन
यहाँ भी नहीं सँवरा।
चला गया सूर्य रोज,
चौड़ी सड़कों वाले छज्जों पर-
धूप को बिखेर कर,
क्या करने आता
सँकरी गलियों वाली-
मेरी मुँड़ेर पर
सीलन से भरा हुआ महानगर में कमरा।
चलते क्षण नाई जो दिखा गया आरसी,
व्यर्थ दही, अक्षत सब
झूठा हुआ ज्योतिषी,
वैसे ही शनि का प्रकोप जयों का त्यों ठहरा।
जाड़े की रात कटे:
चर्चा कर धान के पुआलों की,
नल के नीचे ग्रीषम का स्नान।
करे याद भरे तालों की,
वर्षा में
डगडगा अखाड़े का
आज भी नहीं बिसरा।