भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कई-कई दिन / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:46, 17 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिवबहादुर सिंह भदौरिया |अनुवादक=...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कई-कई दिन।
मेले में
मन न लगे, और
अकेले जी ऊबे,
वहाँ निहारूँ अधिक
जहाँ रवि
तनिक-तनिक डूबे-
किरण लिए
अनगिन।
जल में पड़ी
वृक्ष-छाया को
आँखों मकें रोपूँ
सागर का विस्तार-
उठाकर, गागर को सोंपूँ,
बैठा रहूँ
निहारूँ
जल में मारूँ-
कंकड़ियाँ-
गिनगिन।