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संचेतना के नये आयाम / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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जब
सोचना ठहर गया।
कहीं नहीं दिखा:
अशान्ति का धुआँ
वह था
नीली छत भर
एक महास्तूप की,
वृत्ताकार क्षितिजों के मेहराब।
मेरी झुकी बाहें;
जल में घुली स्याही सा
फैलता गया मेरा अस्तित्व रूप,
मेरी ही संकल्पित प्रज्ञा की
गढ़ी हुई देव छायाएँ
क्रमशः
आईं फिर गईं,
और मुझ तद्रूप के कानों में-
विस्मयकारी घंटा-रव
घहर गया।