भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपना घर / श्रीप्रसाद
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:21, 20 फ़रवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=श्रीप्रसाद |अनुवादक= |संग्रह=मेरी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अपने घर की बात अलग है
लगता है घर प्यारा
कच्चा-पक्का ऊँचा-नीचा
सायबान ओसारा
छत लगती है इंद्रलोक-सी
आँगन बागों जैसा
दरवाजे, घर का चबूतरा
मीठे रागों जैसा
चिड़ियाँ साथिन होतीं, जिनसे
घर गूँता हमारा
दिल्ली है, बंबई शहर है
भवन बीस तल वाले
आसमान को छूते हैं ये
लगते बड़े निराले
मगर खुशी की तो बहती है
अपने ही घर धारा
घर का हर कमरा-बरामदा
हर खिड़की-दरवाजा
जैसे हर क्षण हमें बुलाते
कहते आ जा, आ जा
घर में माँ है, थपकी देती
सो जा राजदुलारा
बाहर अगर कहीं जाते हैं
घर की यादें आतीं
बहुत दूर हों, तब तो अक्सर
आँखें भर-भर जातीं
घर खिल-खिल हँसने लगता है
ज्यों संसार हमारा
अपने घर की बात अलग है
लगता है घर प्यारा।