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रात-दिन / श्रीप्रसाद

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सूरज पूरब में आया था
झलमल-झलमल मुसकाया था
फिर सारा दिन बीत गया तो
हँसती आई शाम
लेकर के आराम

शाम चली फिर धीरे-धीरे
सागर, नदी, ताल के तीरे
रात आ गई धरती पर ले
तारों की मुसकान
चमक उठा सुनसान

लेकिन यह दिन कैसे आया
कौन रात को भी फिर लाया

इसके उत्तर में कहता है
एक बात भूगोल
यह धरती है गोल

धरती चक्कर खाती जाती
पश्चिम से पूरब में आती
चक्कर करती है सूरज का
रहकर उसके पास
दिन है सिर्फ प्रकाश

अपना भी चक्कर खाती है
एक राह चलती जाती है
सूरज के सामने आ गई
तो होता दिन नाम
जब हम करते काम

फिर जो हिस्सा छिप जाता है
नहीं रोशनी जो पाता है
सूरज की ओट में भूमि पर
वहाँ चमकती रात
तब फिर आता प्रात

रात और दिन आते-जाते
बारी-बारी से मुसकाते
धरती को ये सदा सजाते
बदल-बदलकर साज
ज्ञात हुआ यह आज।