भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औरत / सुप्रिया सिंह 'वीणा'
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:28, 4 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुप्रिया सिंह 'वीणा' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दुख छै दुखोॅ के पास छै औरत के जिंदगी।
सुख चाह में उदास छै औरत के जिंदगी।
मरी-मरी के जीयै छै कि जीयै लेॅ रोजे मरै।
एक चलती फिरती लाश छै औरत के जिंदगी।
स्वछंद सरंग में सपना बनी घूमै-फिरै रोजे,
गोड़ोॅ नीचू के घास छेकै औरत के जिंदगी।
घूमै चक्का सुदर्शन तहियो भी जाल नै कटै,
आपनो जीहोॅ के संत्रास छै औरत के जिंदगी।
कोय उमर नियत नै घिनौना जाल फांसै लेॅ,
घर-गाँव, शहर सगरोॅ फाँस छै औरत के जिंदगी।
कोय कृष्ण कहाँ आवै कारागृह सें मुक्ति दै लेली,
एक आस एक विश्वास छै औरत के जिंदगी।