भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कलियुगिया धर्म / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:01, 4 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=साध...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कलियुग का यह धर्म कठिन है, काल भयावह यम
धारण करके नर लगता हैµनरसिंह का अवतार
पिस्टल से कम नहीं धर्म है, शान चढ़ी तलवार
जिसका नशा न उतरे; ऐसा बोदका, ह्निस्की, रम ।
किसकी हिम्मत धर्म विरस को बदनियती से रोके
इसकी एक हँसी पर पूरी बस्ती तक ढह जाती
नाश जहाँ तक दिखता इसकी माया है दिखलाती
विधि के सारे विधि-विधान को रख देता है धो के ।
द्वेष-दुखों का पोथी-पतरा, जंतर-मंतर-राज
अटका-मटका स्वाहाओं का, फूँक-झाड़ का चांटा
फूस-फास के कास-कूस का गड़ने वाला काँटा
छोटा जीवन गौरैया-सा, धर्म घूरता बाज ।
गुरु अर्जुन और तेग बहादुर की आँखें क्यों लाल
जिसको धर्म कहो तुम, वह तो ‘बाला’ पर है व्याल।