उबेर / मनोज शांडिल्य
मेघ
मुग्ध भेल हेरैत रहैत अछि
धरणीक सौंदर्य
भ’ जाइत छैक प्रेम अनायासहि
विकल होइत अछि
प्रेयसी-मिलनक लेल..
विरहक सघन आर्द्रता
बढ़बैत रहैत छैक घनक घनत्व
आ जखन भरि क’ बेसम्हार भ’ जाइत छैक हृदय
तँ उतरि अबैत अछि अकास सँ
अनुराग सँ भरल, भारी भेल
भ’ जाइत अछि नतमस्तक प्रेयसीक ल’ग..
मुदा विधनाक निष्ठुर खेल!
भाव-विव्हल भेल
भ’ जाइत अछि विभोर
झहरय लगैत छैक नोर
प्रेमक अतिरेक मे
भावक आवेग मे
समस्त नेह क’ दैत अछि अर्पण
अपन सर्वस्वक पूर्ण समर्पण..
आलिङ्गन के कहय
स्पर्शहु सँ वंचित
मेघ –
पियासलि प्रेमिकाकेँ करैत अछि तृप्त
प्रेमक बलि-वेदी पर
प्रेमेक निमित्त
भ’ जाइत अछि पूर्णतः नष्ट
के बुझैत छैक कष्ट!
बुझैत अछि धरि मेघ
ओकर होयब होइत छैक तखनहि पूर्ण
जखन होइत अछि ओ
अस्तित्वहीन, सम्पूर्ण..
एक सुच्चा प्रेमीक अंत्येष्टिक उपरान्त
करैत छी हम उद्घोष
लिअ भ’ गेल फेर
उबेर!