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दसवीं ज्योति - आश्रम / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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इस निर्जन वन में कैसा
यह खड़ा तपोवन सुन्दर!
लगता कितना आकर्षक
इसका यह रूप मनोहर!॥1॥

स्वच्छन्द भाव से इसमें
मुनिगण विचरण करते हैं।
वन के हिंसक जीवों से
वे तनिक नहीं डरते हैं॥2॥

उनको उनसे भय कैसा
वे उन्हें कभी न सताते।
वे भी आश्रम में आकर
निज प्रेम-भाव दिखलाते॥3॥

निज हित-अनहित की बातें
पशु भी हैं खूब जानते!
जो इन्हें कभी न सताते
उनको वे सखा मानते॥4॥

छल-कपट, कृतघ्नी होना
यह सभ्य जगत् ही जाने।
इनका रहस्य यह भोला
जंगली जगत् क्या जाने?॥5॥

वे तो आश्रम की शीतल
छाया में आ रमते हैं।
तपती दोपहरी में सब
विश्राम यहीं करते हैं॥6॥

प्रातः बाल-रवि की मृदु
कोमल किरणें पड़ती हैं।
नव-जाता ऋषि-कन्याओं
में किलक-मोद भरती हैं॥7॥

वे ठुमक-ठुमक इस आश्रम
के आँगन में फिरती हैं।
मानो रवि की किरणों से
मिलकर क्रीड़ा करती हैं॥8॥

जब रवि की किरणों इनको
अपनी तेजी दिखलातीं
ये उनको धता बता कर
निज कुटिया में भग जातीं॥9॥

निशि में शशि आकर अपनी
शीतल किरणें फैलाता।
रवि की सारी गर्मी को
क्षण-भर में दूर भगाता॥10॥

ये उछल-कूद करते हैं
कैसे सुन्दर मृग-शावक।
इनका मुँह पकड़-पकड़ कर
क्रीड़ा करते मुनि-बालक॥11॥

ये नन्हें से मृग-छौने
यों ही घूमा करते हैं।
शेरों के बच्चों से भी
क्या तनिक कभी डरते हैं?॥12॥

यह है पवित्र आश्रम की
रज का प्रभाव ही निर्मल।
जो सभी प्रेम से रहते
क्या सबल और क्या निर्बल?॥13॥

तरु-लता-बेलियाँ भी ये
कैसी प्रफुल्ल दिखती हैं!
मृदु-मन्द वायु-झोंकों से
झुक झूम-झूम उठती हैं॥14॥

जब पुष्पित लतिकाओं पर
शशि की किरणें पड़ती हैं।
लगता मानो आश्रम की
शोभा लख वे हँसती हैं॥15॥

पक्षी भी चहक-चहक कर
अपना मधु गान सुनाते।
अपनी मीठी बोली से
आश्रम को मस्त बनाते॥16॥

यह देखो सरिता का जल
है कितना स्वच्छ मनोहर!
आश्रम की भूमि निरन्तर
करता है शीतल उर्वर॥17॥

आश्रम-कन्याएँ उसमें
से जल भर कर ले आतीं।
जिससे अपने पौधों को
हैं सिंचित करती रहतीं॥18॥

हैं कैसी कर्मशील ये
बालाएँ भोली-भाली!
इनके जीवन की गतिविधि
है बड़ी अपूर्व निराली॥19॥

प्रातः सायं मिलकर सब
प्रभु-ध्यान किया करते हैं।
उसकी अपार लीला का
गुण-गान किया करते हैं॥20॥

यह वातावरण यहाँ का
कितना है स्वच्छ, सुहावन!
गम्भीर, शान्त कितना है
कितना है निर्मल, पावन!॥21॥

जी होता इस आश्रम में
मैं भी सेवक बन जाऊँ।
प्रभु की सेवा में निशि-दिन
कुछ मधुर-मधुर मैं गाऊँ॥22॥