दसवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
ये झलकते धूलि के कण!
विश्व, क्यों तू समझ बैठा इन्हें रे तुच्छ रज-कण?
पद-दलित रहते निरंतर
यातना सहते भयंकर
बन गये पर्याय दोनों शब्द उत्पीड़न व जीवन।1।
मानवों का ही न इन पर
चक्र चलता है निरंतर
सहन करते प्रकृति के भी ग्रीष्म-वर्षा-शीत भीषण।2।
विवश होकर रहे रहे ये
मौन होकर सह रहे ये
प्रकृति-मानव के थपेड़ों से प्रपीड़ित विकल तन-मन।4।
किंतु यह सोचा न क्यों रे
सृष्टि के आरंभ से ले
आज तक इतिहास-संस्कृति का किया किसने सुरक्षण।5।
लौह युग औ’ ताम्र युग सब
रजत युग औ’ स्वर्ण युग सब
टिक सके निज रूप में कब, हो गये सब ‘तुच्छ रज कण’।6।
जो मधुर वीणा बजाते
स्वरों का अमृत पिलाते
दे रहे झन्कार उनकी भी मधुर ये ‘तुच्छ रज कण’।7।
लेखनी जिनकी निरंतर
सृजित करती सृष्टि सुंदर
आज उनके भी दिखते खँडहरों को ‘तुच्छ रज कण’।8।
स्वर्ग का संदेश लेकर
जो यहाँ आये धरा पर
दे रहे संदेश उनका भी अमर ये ‘तुच्छ रज कण’।9।
हैं लिखे प्रत्येक कण में
हैं छिपे प्रत्येक व्रण में
रुदन-हास-विलास तेरे, मत समझ ये ‘तुच्छ रज कण’।10।