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सोलहवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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मानव ही मानव का शोषण!
कर रहा आज, क्या यही अरे! इस युग के जीवन का दर्शन?

ओ युग! अपने को सभ्य आज
कहता तू; औ’ साँस्कृतिक साज
अपना बतलाता श्रेष्ठ, किया करता रे उसका उद्घोषणा॥

तेरे ही इस निष्ठुर-निर्दय
सांस्कृतिक अंक में पला अभय
मानव मनव के अन्तर में कर रहा घृणा-विद्वेष-वपन॥

क्या उसे दया आती क्षण-भर
उन भूखे नंगे दीनों पर
जिनके श्रम-कण बन गए आज उसके वक्षः स्थल के भूषण?

कब है उसको उनकी चिन्ता
कब वह उनको मानव गिनता
उनका पशु से भी निम्न कोटिका रे अस्तित्वहीन जीवन॥

उसका है केवल एक स्वप्न
जीवन के सम्मुख एक प्रश्न
किस भाँति करे निर्माण नग्न अभिलाषाओं का भव्य भवन॥

उसके ही लिये आज मानव
बन रहा क्रूर हिंसक दानव
कर रहा विश्व की मानवता का अपने लिये सतत् भक्षण॥

क्या शेष? देख युग! आँख फेर
मानव का? केवल अस्थि-ढेर
उस अस्थि ढेर पर भी दानवता का है आज सुदृढ़ शासन॥