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चौबीसवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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पर्वतों को दो ऊँचे शिखर
उदधि में भरो नीर गम्भीर,
व्योम का भर कर उज्ज्वल रत्न
सुसज्जित कर दो श्याम शरीर!
भरो दिनकर में तेज महान्
और शशि की किरणों में शीत,
किन्तु मेरे अन्तर में देव!
भरो बस मधुर प्रेम-संगीत॥

उषा को करो लालिमा भेंट
और सन्ध्या को मोती दान,
दिवस को दो रवि-जैसा रत्न
निशा को दो शशि-सा हिमवान।
भरो पुष्पों में सुरभि अपार
बना दो रसिक भ्रमर-से मीत,
किन्तु मेरे अन्तर में देव!
भरो बस मधुर प्रेम-संगीत॥

करो उनमें आशा-संचार
हो गये हैं जो निपट निराश,
और जो हुए विकल संतप्त
भरी उनमें अपार उल्लास।
तपस्वी को तप और विवेक
गुणी को करो विनम्र-विनीत,
किन्तु मेरे अन्तर में देव!
भरो बस मधुर प्रेम-संगीत॥

भरो मारुत् में प्रबल प्रवेग
और मलयानिल में मकरन्द,
भरो मेघों में गर्जन घोर,
करें जिससे वे वृष्टि अमन्द।
निर्बलों को दो सम्बल-शक्ति
वीरता के हाथों में जीत,
किन्तु मेरे अन्तर में देव।
भरो बस मधुर प्रेम-संगीत॥