हँसने का वरदान मिला है / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हँसने का वरदान मिला है।
हँस कर जब-जब मिला, मुझे हँसता ही हर इंसान मिला है॥
ऊषा आती लिये क्षितिज के
अधरों पर मुसकान निराली;
भर जाती है स्वर्णिम मधु से
देवों की नीलम की प्याली।
हँस कर जब-जब किरण मिली, कमलों का मुख अम्लान मिला है॥1॥
चाँद मुसकराता आता, लख
कुमुद उसे खिल-खिल उठता है;
रजनी का नीला अंचल
तारों से मिल झिलमिल करता है।
खिली चाँदनी को सरिता की लहरों का आह्वान मिला है॥2॥
मधु ऋतु आता देख स्वयं
कलियाँ-कलियाँ खिलने लगती हैं;
पाकर स्पर्श समीरण का
झुक झूम-झूम हिलने लगती हैं।
हँस कर जब-जब फूल बनीं वे, मधुकर का मधु गान मिला है॥3॥
क्या जानूँ कैसे कहते तुम
‘दुनिया यह रोती रहती है,
सतत् अश्रु जल की धारा से
घावों को धोती रहती है।’
तुम रोते हो इसीलिये यह रोता तुम्हें जहान मिला है॥4॥
मैंने इस जग से अब तक
केवल हँसकर जीना सीखा है;
विष का प्याला अमृत समझ
हँस-हँसकर ही पीना सीखा है।
इसीलिए विष पीकर भी जीने का यह अभिमान मिला है॥5॥
मैं गाता आया मस्ती में
और सदा गाता जाऊँगा;
जग माने या नहीं, किन्तु
मैं हँस-हँसकर कहता जाऊँगा।
हँसते-हँसते ही मुझको दुनिया का वह भगवान मिला है॥6॥