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आज गीले गान मेरे / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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आज गीले गान मेरे।
रिक्त नयनों में भरे मोती यही अभिमान मेरे॥

हृदय का सागर उमड़ कर
चाहता है आज बहना;
रोक साँसों के किनारे
कह रहे-पगले, न बहना।
बह गया तो साथ ही बह जायँगे अरमान तेरे॥1॥

थाम अपना वेग तू
बाहर उसे बहने न देना;
मूक उर की वेदना को
विश्व से कहने न देना।
हँस कहेगा विश्व ‘झूठे वेदना के गान तेरे’॥2॥

कौन जग में दूसरों के
आँसुओं को पोंछता है!
कौन जग में बात मन की
दूसरों की पूछता है!
बीतती जिस पर वही है जानता ओ प्राण, मेरे॥3॥

साथ देगा कौन? मेरे
मौन पलकों के किनारे;
मुसकराता आ रहा मैं
आज तक जिनके सहारे!
थाम लेंगे वे ढुलकते मोतियों को, त्राण मेरे॥4॥

इन दृगों ने ही बसंती
दृश्य देखे मुस्कराकर;
आज वे ही देखते
पतझड़ अभागे सिर झुकाकर।
मौन हैं, स्वीकृत उन्हें ओ देव, क्रूर विधान तेरे॥5॥

बीतने दो यह अँधेरी
रात, स्वर्णिम प्रात होंगे;
आज के बिछुड़े यहाँ हम
कल कहीं फिर साथ होंगे।
मिलन की आशा लिये आते विरह के क्षण अँधेरे॥6॥