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रात भर मौन / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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रात भर मौन सूने गगन के तले
दीप जलता रहा, गीत चलता रहा।

सो रहा विश्व था नींद की गोद में,
जग रहा मैं अकेला, विवश, एक था;
स्वप्न-से मुखर चलते हुए चित्र को
रजत-पट पर रहा एकटक देखता।

दृश्य रंगीन क्रम से निकलते गये,
चित्र चलता रहा, अश्रु बहता रहा॥

चाँदनी ने दिया साथ कुछ देर तक
किन्तु वह भी गयी चाँद के साथ में;
मैं तिमिर की शिला पर रहा खींचता
चित्र ले तूलिका याद की हाथ में।

ओस-से अश्रु झरते निरंतर रहे,
चित्र बनता रहा, रंग धुलता रहा॥2॥

रात-भर जागता जो रहा साथ में
झँप गये उस गगन के उनीदे नयन;
मैं उठा और देखा कि हर फूल की,
शूल की आँख में है भरे अश्रु-कण।

रश्मियाँ चूम उनको लगीं पोंछने,
अश्रु पुँछता रहा, स्वर सिसकता रहा॥3॥

23.8.59