हृदय-दीप में / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
हृदय-दीप में स्नेह का सिंधु भर-भर
तुम्हीं ने जलाया, तुम्हीं अब बुझा दो।
सृजन की लिये तूलिका क्षिति-क्षितिज-जल
पवन-अग्नि के रंग तुमने मिलाये।
समय-भित्ति पर साँस की रेख अनगिन
स्वयं खींच जो चित्र तुमने बनाये।
उन्हीं रंगमय चित्र में एक हूँ मैं
तुम्हीं ने बनाया, तुम्हीं अब मिटा दो॥1॥
जगत्-सिन्धु में एक दिन एक नन्हीं
चमकती हुई बूँद तुमने गिरायी।
वही बूँद जब बन लहर, भूल कर
धूल-निर्मित तटों से मिली, मुसकरायी।
उसी क्षण उसे किरण-कर से गगन तक
तुम्हीं ने उठाया, तुम्हीं अब गिरा दो॥2॥
मुझे याद है वह न दिन जब कि तुमने
समय की सरित में मुझे था बहाया।
न है याद यह भी कि चुपके किधर से
गरजता हुआ एक तूफान आया।
मगर पार मझधार से कर किनारे
तुम्हीं ने लगाया, तुम्हीं अब डुबा दो॥3॥
रहा मैं समझ विव है एक उपवन
कि जिसमें नहीं फूल खिलते सभी हैं।
रहा देखता इन दृगों से निरन्तर
कि जलते हुए दीप बुझते सभी हैं।
यही देखने के लिए शक्ति देकर
तुम्हीं ने हँसाया, तुम्हीं अब रुला दो॥4॥