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किसी का भार / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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किसी का भार, बन मत जी।
सभी का प्यार, बन कर जी॥
भले ही भूल मर्यादा
सरित तूफान ले आयी;
हजारांे बस्तियों की अर्थियाँ
जीवित बहा लायी।
मगर इससे हुआ क्या, तू
न उसका बाँध बन कर जी।
तरंगित धार बनकर जी॥1॥
साँस के तार पर है जो
छिड़ा संगीत जीवन का;
भले ही राग उसका हो न
तेरी चाह का, मन का।
मगर तू भूल कर भी रे न
उसका स्वर विषम बन जी।
मधुर झंकार बन कर जी॥2॥
चमन में फूल-सा खिलता
किसे जग देख पाया है;
नयन से मुसकरा कर
धूल में उसको मिलाया है।
स्वार्थी आदमी की कौम
पर तू शूल बन मत जी।
गले का हार बन कर जी॥3॥
24.7.57