ऐसा भी जीवन की पुस्तक / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
ऐसा भी जीवन की पुस्तक
का यह कैसा पृष्ठ कि जिसमें
कोई कौमा
अर्द्ध विराम,
विराम नहीं है?
ऐसा भी चलचित्र अरे क्या
जीवन का यह बना रहे हम
जिसमें गति ही गति,
कोई विश्राम नहीं है?
माना है, विश्राम-विराम मृत्यु के लक्षण,
गति ही जीवन है,
फिर भी चलने वाले को
कुछ क्षण तो आवश्यक हैं ही ऐसे जिनमें
वह रुक कर कुछ दम भर ले,
कुछ साँस ले सके,
जिससे फिर आगे का उसका कदम उठे जो
उसमें और अधिक गति हो,
मजबूती हो, तेजी-दृढ़ता हो।
उतना ही
मंजिल भी उसकी ओर
बढ़ रही स्वयं
वेग से चरण चूमने।
तब उसके कदमों में दम कुछ और रहेगी
श्वास-श्वास में होगा कुछ विश्वास और ही।
थके पाँव कब गाँव पहुँच पाये हैं अपने?
मैं पहुँचा हूँ इसी नतीजे पर,
कहता हूँ इसीलिए मैं
जीवन की पुस्तक के पन्ने में आवश्यक
पूरे कौमे,
अर्द्ध विराम,
विराम चाहिए।
जीवन का चलचित्र जो कि यह बना रहे हम
उसमें इंटर्वल,
अन्तर-विश्राम चाहिए।
9.7.60