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यह है मोमबत्ती / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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यह है मोमबत्ती जो कि
सिर पर उठाये आग अपने ही
तिल तिल कर
जलती है,
हिलती है न
डुलती है।
टप टप टप गिरते जो
अश्रु-बिन्दु इसके ये
आग-से,
उनमें है गलती
पिघलती जा रही यह देह
इसकी कपूर-सी।
लगता है
प्रेम की डोर में
बँधी है यह जिसके भी,
उसको ही
पाने को, उसको ही ढूँढ़ कर लाने को
जलती है
पथ की अँधियारी में
स्वयं ही ज्योति बन।

पास ही खड़ी है एक युवती
सुहाग भरी,
उसकी भी आँखों में
आँसू हैं,
क्षीण हो रही है देह
उसकी भी कंचन-सी।
देख है रही वह
एकटक मोमबत्ती को
मोमबत्ती उसको।

सोचती है युवती-
‘मैं चेतन हूँ जड़ है यह;
लेकिन विरह में मैं
विचलित हूँ, दृढ़ है यह।
मैंने ही जलाया है इसको
इन हाथों से

लेकिन यह मेरे भी
घर की उजियारी बन
कर रही आलोकित
अपने पथ को भी है,
देख रही धीरज से
बिछुड़े हुए साथी के रथ को है।’

युवती के नयन झुके,
नयनों के अश्रु रुके,
ओठ हिले।
फिर से देख
एकटक जलती मोमबत्ती को
युवती मुसकरा उठी
युवती खिलखिला उठी।
लग गयी काम में
गुन गुन कुछ गाती हुई।

मस्तक उठाये
मोमबत्ती वह जलती रही,
वैसे ही निष्कम्प
उर में दबाए हुए
उठता हुआ भूकम्प॥

23.6.61