भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भय नहीं मुझको / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:07, 6 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
भय नहीं मुझको कि यह मझधार है।
मैं समझता हूँ कि तट का द्वार है॥
चल पड़ा हूँ नाव लेकर जब कि मैं
तो भलाये आँधियाँ, तूफान क्या?
झुक रहे ये मेघ, झुकने दो इन्हें
है खड़ी जो सामने चट्टान, क्या?
जो डुबाती धार नौका को वही
धार मेरी नाव का आधार है॥1॥
डर गए जो धार को ही देख कर
वे न हो सकते कभी भी पार हैं।
पार होते हैं वही जो धार में
डूबने को हर समय तैयार हैं।
इसलिए मुझको गरजती धार की
हर चुनौती हर समय स्वीकार है॥2॥
जानता हूँ मैं अभी तट दूर है,
पार जितनी धार की वह कुछ नहीं।
किन्तु मुझको हो रहा विश्वास यह
बीच में मैं रुक नहीं सकता कहीं।
है नहीं चिंता कि खाली हाथ हूँ
हर लहर मेरे लिए पतवार है॥3॥
21.8.56