मन के हारे / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत,
मत निराश हो यों, तू उठ, ओ मेरे मन के मीत!
माना पथिक अकेला तू, पथ भी तेरा अनजान,
और जिन्दगी भर चलना इस तरह नहीं आसान।
पर चलने वालों को इसकी नहीं तनिक परवाह,
बन जाती है साथी उनकी स्वयं अपरिचित राह।
दिशा दिशा बनती अनुकूल, भले कितनी विपरबीत।
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥1॥
तोड़ पर्वतों को, चट्टानों को सरिता की धार
बहती मैदानों में, करती धरती का शृंगार।
रुकती पल भर भी न, विफल बाँधों के हुए प्रयास,
क्योंकि स्वयं पथ निर्मित करने का उसमें विश्वास।
लहर लहर से उठता हर क्षण जीवन का संगीत
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥2॥
समझा जिनको शूल वही हैं तेरे पथ के फूल,
और फूल जिनको समझा तूवे ही पथ के शूल।
क्योंकि शूल पर पड़ते ही पग बढ़ता स्वयं तुरंत,
किंतु फूल को देख पथिक का रुक जाता है पंथ।
इसी भाँति उलटी-सी है कुछ इस दुनिया की रीति।
मन के हारे हार सदा रे, मन के जीते जीत॥3॥
20.8.59