कष्ट पड़ें / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
कष्ट पड़ें चिन्ता न करो तुम
ये यों ही आते जाते हैं।
फूल सदा काँटों में खिलते
सेजों पर मुरझा जाते हैं॥1॥
खिलते फूल देख उपवन में
हम सब तोड़ उन्हें लाते हैं।
किन्तु फूल फिर भी हँस-हँसकर
हार गले का बन जाते हैं॥2॥
सोच न कर, दुर्दिन पड़ने पर
सब मुँह मोड़ लिया करते हैं।
अपने आँसू ही आँखों को
रोती छोड़ दिया करते हैं॥3॥
सभी नहीं दुनियाँ में अपने
मनवांछित फल पा पाते हैं।
खिलनेके पहले ही अनगिन
सुमन, विवश, मुरझा जाते हैं॥4॥
स्वयं शक्तिशाली होने पर
शत्रु नहीं कुछ कर पाता है।
रवि के आने से पहले ही
तम छिपकर चुप भग जाता है॥5॥
बाधाएँ आतीं, आने दो
रुकते कभी न चलने वाले।
तोड़ पर्वतों, चट्टानों को
बहते नद निर्झर मतवाले॥6॥
जग-मंगल-हित जीने वालों
का मस्तक ऊँचा रहता है।
दीपक की स्वर्णिम लौ का रुख
कभी नहीं नीचे झुकता है॥7॥
पंथ अपरिचित, तुम एकाकी
पर सोचो यह कभी न पल भर।
सूरज सदा अकेला चलता
आसमान के सूने पथ पर॥8॥
1955-1962