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डरी हुई ज़मीन / कुमार कृष्ण

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अदरक की तरह
शब्दों को मिट्टी में दबाकर
नहीं कर सकती
अगले वर्ष का इन्तजार
मेरे गाँव की डरी हुई ज़मीन।

लाल, काली, हरी और भूरी ज़मीन के
नीले में बदलने की प्रतीक्षा
नहीं कर सकता मैं जब और।

बर्फीले मौसम में फटती
मुँहासे की तरह
मेहनत से थकी हुई जलती
रोटी की तरह
पसीने से तर-ब-तर
मवेशियों की तरह
कब तक आखिर
कब तक यूँ ही
लार टपकाती, रहेगी रँभातीप
पागलों-सी हकलाती
मेरे गाँव की डरी हुई ज़मीन
फर्क नहीं कोई ख़ास
इस ज़मीन या उस जूते के फटने में
गाय-सी सिकुड़ती जा रही
जो खुद-ब-खुद।

इस पर सही बात कर सकता है
तो कर सकता है वह बैल
जवान जीभ से महसूसता हुआ
इसकी गरमाहट को
हो गया बूढ़ा पंजर।

नहीं वैसे डरी हुई इस परती को बाँचना
आदमी के बस की बात
इसे जान सकता है
तो जान सकता है वह लोहार
एक गुलामी से दूसरी गुलामी
एक आजादी से दूसरी आज़ादी
धधकाता रहा आग
मारता रहा चोट
सीता रहा घाव
इस डरी हुई ज़मीन के।