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कहाँ गयी वह दुनिया / कुमार कृष्ण

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सोचता हूँ-
बहुत जल्दी ही आ जाएगा ऐसा समय
जब नयी पीढ़ी सोचेगी हमारे बारे में कुछ इस तरह-
हमारे पूर्वज चलते थे अपने खीसे में लेकर
आग की डिबिया
रस्सी पर लटक कर पार करते थे नदियाँ
पत्तल पर, काँसे की थाली में खाते थे सत्तू
पीते थे कटोरा भर छाछ
पूरी रात घूमते थे सपनों की दुनिया में
वे नहीं जानते थे-
नींद की गोलियों के बारे में
रहता था उनका रक्तचाप बारह महीने एक जैसा
छोटी- छोटी खुशियों का
मनाते थे उत्सव
नहीं मनाते थे-
मदर्स डे, फादर्स डे, वेलेन्टाइन डे
नहीं सोचते थे वे कभी आने वाले कल के बारे में
रहते थे पूरी तरह मस्रूफ वर्तमान में
गुज़ार देते थे पूरी उम्र बच्चों की हिफ़ाज़त में
पिघलता था उनका हर पल
राग की आग में
नाचते थे वे लोकगीतों की धुन पर
पहनते थे पूरे शरीर पर कपड़े
ओढतीं थीं औरतें सिर पर चुनरी
लगाती थीं माथे पर लाल बिंदिया
माँग में सुहाग का सिन्दूर
नहीं कटवाती थीं औरतें कभी अपने बाल
नहीं भूलती थीं सुहागिन औरतें
गले में मंगलसूत्र लटकाना
पैरों में पाज़ेब, हाथों में दर्जन भर चूड़ियाँ
औरतें रखती थीं करवा चौथ का व्रत
माँगती थीं पतियों की लम्बी उम्र

हमारे पूर्वज पढ़ते थे-
अंगुलियों पर पूरा अंक गणित
लिखते थे महाकाव्य
लालटेन की रोशनी में लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ
वे ओढ़ते थे रिश्तों के मोटे-मोटे कम्बल
मनाते थे मवेशियों के त्योहार
करते थे तरु-पूजा, जल-पूजा
चलते थे घर के अन्दर नंगे पाँव
उनको आती थी-
दीवारों को घर में बदलने की कला
जानते थे सिलना-
फटे-पुराने रिश्तों का लेवा
जानते थे चलाना बैलों से हल और हेंगा
जानते थे-
लौकी का गुल्लक और बीन बनाना
जानते थे-
सूखे बाँस में रागात्मक फूँक भरना
गुलेल, बन्दूक, तीरकमान
सभी कुछ जानते थे चलाना
फिर भी नहीं मारते थे एक भी चिड़िया
अजीब इनसान थे हमारे पूर्वज।