Last modified on 12 मार्च 2017, at 09:28

जमने से पिघलने तक / प्रेरणा सारवान

Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:28, 12 मार्च 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रेरणा सारवान |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कभी - कभी
मेरी जलती हुई पीड़ाएँ
बर्फ़ की तरह
जम जाती हैं
और मुझे
सहन नहीं हो पाती है
उसकी तीव्र शीतलता
उसी असहनीय
पीड़ा के बीच
मेरी आँखें
तप उठती हैं
सूर्य की तरह
और पीड़ाएँ
पिघलने लगती हैं
बर्फ़ की तरह
और इसी
जमकर पिघलने की
क्रिया के बीच में
मैं सब कुछ
सहन कर जाती हूँ।